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अनुच्छेद 370 पर बहस जरूरी क्यों
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दरअसल इस बार चुनावों में राज्य की आम जनता ही अनुच्छेद 370 को लेकर अब्दुल्ला परिवार से प्रश्न पूछ रही है। घाटी के गुज्जर-बकरवाल, बल्ती, शिया और जनजाति समाज तो इस मामले में बहुत ज्यादा मुखर है। ये सभी पूछ रहे हैं साठ साल में इस अनुच्छेद से उन्हें क्या लाभ मिला? जनता के इन प्रश्नों का अब्दुल्ला परिवार के पास कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है। अब वे सार्वजनिक रुप से यह तो कह नहीं सकते कि आपको लाभ हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन हमारे परिवार और हमारे व्यवसायिक दोस्तों को तो बहुत लाभ हुआ है। जनता को कोई संतोषजनक उत्तर न दे पाने के कारण ही बाप बेटा धमकियों पर उतर आये हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो धमकियां देते काफी दूर निकल गये। उन्होंने कहा यदि मोदी सत्ता में आते हैं तो उनको समर्थन देने की बजाय मेरे लिये पाकिस्तान चले जाना ही श्रेयस्कर रहेगा। अपने इस इरादे को और भी दृढ़ करते हुये उन्होंने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान जाने के लिये अब उन्हें दिल्ली जाने की भी जरुरत नहीं है। घाटी में ही दूसरी ओर मुज्जफराबाद जाने के लिये बस मिल जाती है और वे उसी से सरहद पार कर जायेंगे। इससे यह तो स्पष्ट हो ही रहा है कि मुज्जफराबाद तक बस चलवाने के लिये अब्दुल्ला परिवार ने जो कई साल यत्न किया था, उस के पीछे उनकी अपनी भविष्य की योजनाएं भी एक कारण था। एक संकेत यह भी मिलता है कि आज तक एल.ओ.ए.सी पर उग्रवादियों का सरहद से पार आना जाना क्यों नहीं रुक सका?

1954 की यह अधिसूचना एक प्रकार से जम्मू कश्मीर राज्य द्वारा अपने लिये तैयार किया गया नया संघीय संविधान ही था जिसकी मूल आत्मा मूल संघीय संविधान से बिल्कुल नहीं मिलती थी।

किसी भी सांविधानिक व्यवस्था की श्रेष्ठता की अंतिम कसौटी बहुजन हिताय बहुजन सुखाय ही है। विशिष्ट जन हिताय विशिष्ट जन सुखाय नहीं हो सकती। कौन सी व्यवस्था बहुजन हिताय है इसका निर्णय भी लोकतंत्र में जनता ही करती है।

अनुच्छेद 370 का सांविधानिक दुरुपयोग 

अनुच्छेद 370 के दुरुपयोग का एक उदाहरण ही पर्याप्त है। राज्य की संस्तुति पर राष्ट्रपति ने संविधान आदेश (जम्मू कश्मीर में प्रभावी) 1954 अधिसूचित किया जिसके अनुसार संघीय संविधान के अनेक प्रावधान राज्य में प्रभावी बनाये गये। लेकिन संघीय संविधान के मूल प्रारूप में आश्चर्यजनक ढंग से रद्दोबदल कर दिया गया। 1954 की यह अधिसूचना एक प्रकार से जम्मू कश्मीर राज्य द्वारा अपने लिये तैयार किया गया नया संघीय संविधान ही था जिसकी मूल आत्मा मूल संघीय संविधान से बिल्कुल नहीं मिलती थी। बाद में 1954 की इस अधिसूचना में निरन्तर संशोधन होते रहे और अब तक भी हो रहे हैं। यह ठीक है कि अनुच्छेद 370 ने राष्ट्रपति को अधिकार दिया है कि वे संघीय संविधान के किसी प्रावधान को अपवादों एवं उपांतरणों सहित लागू करने के लिये अधिकृत किया हुआ है, लेकिन क्या उपांतरणों के नाम पर संघीय संविधान में संशोधन ही नहीं, उसमें इच्छानुसार कोई नया अनुच्छेद जोड़ा भी जा सकता है? यदि ऐसा है, तब तो इसका अर्थ यह हुआ कि जम्मू कश्मीर की विधान सभा भारत का नया संविधान तैयार कर सकती है, जो जम्मू कश्मीर में लागू हो सके। अर्थात अनुच्छेद 370 ने राज्य की उस समय की संविधान सभा को जम्मू कश्मीर का संविधान बनाने के लिये ही नहीं अधिकृत किया बल्कि राज्य पर लागू करने के लिये भारत का संविधान बनाने के लिये भी अधिकृत कर दिया। और सचमुच ही राज्य सरकार की संस्तुतियां पर राष्ट्रपति ने संविधान आदेश (जम्मू कश्मीर पर प्रभावी) 1954 के माध्यम से, उसे समय समय पर संशोधित करते हुये यही काम प्रारम्भ कर दिया।

संविधान में नया अनुच्छेद जोड़ा जाना 

अनुच्छेद 370 के दुरुपयोग का सबसे चौंकाने वाला मामला संघीय संविधान में राष्ट्रपति द्वारा मौलिक अधिकारों के अध्याय में एक नया अनुच्छेद जोडऩे का है। राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 370 का उपयोग करते हुये संविधान में एक नया अनुच्छेद 35 ए जोड़ा। इसके अनुसार-

इस संविधान (संघीय संविधान) में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुये भी, जम्मू कश्मीर राज्य में प्रवृत्त ऐसी कोई विद्यमान विधि और उसके पश्चात् राज्य के विधान मंडल द्वारा अधिनियमित ऐसी कोई विधि –

(क) जो उन व्यक्तियों के वर्गों को परिभाषित करती है जो जम्मू कश्मीर राज्य के स्थायी निवासी हैं या होंगे, या

(ख) जो-

  • राज्य सरकार के अधीन नियोजन,
  • राज्य में स्थावर सम्पत्ति के अर्जन,
  • राज्य में बस जाने, या

2002 में जब इस अधिनियम के अन्तर्गत देश भर के लोकसभा क्षेत्रों का जनसंख्या के आधार पर नये सिरे से परिसीमन किया गया तो जम्मू कश्मीर राज्य ने अपने यहां के छह लोक सभा क्षेत्रों का नये सिरे से सीमांकन करवाने से इंकार कर दिया।

छात्रवृतियों के या ऐसी अन्य प्रकार की सहायता के जो राज्य सरकार प्रदान करे, अधिकार की बाबत ऐसे स्थायी निवासियों को कोई विशेष अधिकार और विशेषाधिकार प्रदत्त करती है या अन्य व्यक्तियों पर कोई निर्बन्धन आरोपित करती है, इस आधार पर शून्य नहीं होगी कि वह इस भाग के किसी उपबन्ध द्वारा भारत के अन्य नागरिकों को प्रदत्त किन्हीं अधिकारों से असंगत है या उनको छीनती या न्यूनतम करती है।

इस नये अनुच्छेद का प्रभाव केवल भारत के उन नागरिकों पर ही नहीं पड़ रहा जो जम्मू कश्मीर राज्य के स्थायी निवासी हैं बल्कि यह नया अनुच्छेद एक प्रकार से भारत के अन्य नागरिकों से वह अधिकार भी छीन रहा है जो उन्हें संघीय संविधान ने प्रदान किये हैं। यदि मान भी लिया जाये कि अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत जम्मू कश्मीर राज्य के उन भारतीय नागरिकों को जो जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी हैं, विशेष सुविधाएं या अधिकार दे सकता है तो क्या वह भारत के अन्य नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीन भी सकता है? दरअसल राष्ट्रपति के संविधान आदेश (जम्मू कश्मीर पर लागू) 1954 ने अनुच्छेद 370 की आड़ में भारत के नागरिकों का ही वर्गीकरण कर दिया। प्रथम भारत के वे नागरिक जो जम्मू कश्मीर राज्य के स्थाई निवासी हैं और द्वितीय भारत के वे नागरिक जो जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं हैं। भारत के नागरिकों का इस प्रकार का वर्गीकरण करने का अधिकार न तो जम्मू कश्मीर की विधान सभा को है और न ही उसकी संस्तुति के आधार पर संघीय संविधान का संशोधन करके यह वर्गीकरण करने का अधिकार राष्ट्रपति को है और न ही अनुच्छेद 370 इस प्रकार का वर्गीकरण करता है। यह एक प्रकार से अनुच्छेद 370 का सांविधानिक दुरुपयोग है।

दलितों व अन्य जनजातिय समाज से भेदभाव 

भारत सरकार ने दलितों के कल्याण के लिये अनेक प्रकार के विधिक प्रावधानों की रचना की है। इसी प्रकार समाज के पिछड़े वर्गों व जनजाति समाज को लाभ पहुंचाने के लिये अनेक प्रावधान किये हैं। लेकिन इन अधिनियमों का लाभ जम्मू कश्मीर के दलितों व पिछड़ों को नहीं मिल सकता। क्योंकि अनुच्छेद 370 के कारण ये प्रावधान जम्मू कश्मीर राज्य में लागू नहीं हो सकते। यदि जम्मू कश्मीर सरकार चाहे तभी ये अधिनियम लागू होंगे। लेकिन दुर्भाग्य से जम्मू सरकार इन अधिनियमों के प्रदेश में लागू करने के पक्ष में नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि अनुच्छेद 370 केवल भारत के उन नागरिकों से भेदभाव नहीं करता जो जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं हैं बल्कि जम्मू कश्मीर के उन नागरिकों के अधिकारों का भी हनन करता है जो राज्य के स्थायी निवासी हैं। राज्य सरकार ने अभी तक विधान सभा में जनजाति समाज के लिये सीटों का आरक्षण नहीं किया है।

चुनावों की दूषित प्रणाली 

केन्द्र सरकार के लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम को राज्य सरकार ने अनुच्छेद 370 की आड़ लेकर पूरी तरह राज्य में लागू नहीं किया। 2002 में जब इस अधिनियम के अन्तर्गत देश भर के लोकसभा क्षेत्रों का जनसंख्या के आधार पर नये सिरे से परिसीमन किया गया तो जम्मू कश्मीर राज्य ने अपने यहां के छह लोक सभा क्षेत्रों का नये सिरे से सीमांकन करवाने से इंकार कर दिया। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या राज्य सरकार देश भर में हो रही परिसीमन प्रक्रिया को अपने यहां रोक सकती है? अनुच्छेद 370 की आड़ में राज्य सरकार ने जम्मू कश्मीर में यही काम किया है। इसका अर्थ है कि राज्य के छह लोक सभा क्षेत्रों में दूषित जनसंख्या प्रतिनिधित्व हुआ है।

अनुच्छेद 370 के नाम पर जम्मू कश्मीर सरकार ने संघीय संविधान के इन प्रावधानों को राज्य में लागू नहीं किया और जमीनी स्तर पर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को बाधित किया।

लोकतंत्र के सशक्तिकरण का विरोध 

संघीय संसद ने देश भर में स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र के सशक्तिकरण हेतु संविधान में 73वां और 74वां संशोधन किया गया। इन नये प्रावधानों के अन्तर्गत पंचायतों व नगरपालिकाओं के चुनावों को सांविधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत लाया गया और स्थानीय नलिकाएं को अधिक शक्तियां प्रदान की गईं। लेकिन अनुच्छेद 370 के नाम पर जम्मू कश्मीर सरकार ने संघीय संविधान के इन प्रावधानों को राज्य में लागू नहीं किया और जमीनी स्तर पर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को बाधित किया।

लिंग भेद को प्रोत्साहन 

राज्य सरकार ने राज्य के संविधान में राज्य के स्थायी निवासियों के लिये विशेष प्रावधान किये। वे प्रावधान संघीय संविधान की मूल भावना के विपरीत थे। लेकिन स्थायी निवासी के नाम पर किये जा रहे भेदभाव को  सुरक्षित करवाने के लिये अनुच्छेद 370 के नाम पर राष्ट्रपति से संघीय संविधान में एक नया अनुच्छेद 35 ए जुडवाया। इस प्रकार पूरी तरह घेराबन्दी करने के उपरान्त राज्य के उन स्थायी निवासियों को जो महिला थीं किसी ऐसे नागरिक के साथ जो राज्य का स्थायी निवासी न हो, शादी करने पर उसे सारे अधिकारों से महरुम कर दिया। अनुच्छेद 370 के नाम पर लिंग भेद का यह निकृष्टतम उदाहरण ही कहा जा सकता है।

राजनैतिक दलों की असफलता 

अनुच्छेद 370 की आड़ में जम्मू कश्मीर राज्य के लोगों से किये जा रहे इस अन्याय पर एक आध को छोड़ कर कमोवेश सभी राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थाएं चुप्पी धारण किये हुये हैं। दलितों, पिछड़े वर्गों और जनजाति समाज के लोगों के अधिकारों के लिये जो राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थाएं सारे देश में हल्ला मचाती रहतीं हैं, वे जम्मू कश्मीर में घुसते ही इन वर्गों के साथ हो रहे अन्याय पर चुप्पी साध लेती हैं।

अब्दुल्ला परिवार की चिन्ता इस बात को लेकर है कि अनुच्छेद 370 की उपयोगिता को लेकर चल रही यह बहस अब कश्मीर की विभिन्न घाटियों तथा श्रीनगर घाटी, गुरेज घाटी और लोलाब घाटी तक में होने लगी है और इसके पक्ष-विपक्ष दोनों अखाड़ों में बहस केन्द्रित हो रही है। नेशनल कान्फ्रेंस इस प्रश्न पर किसी भी ढंग से बहस को रोकना चाहती है क्योंकि इससे पहल जम्मू कश्मीर की आम जनता के हाथ आ जायेगी। अब्दुल्ला परिवार किसी भी स्थिति में यह पहल जनता के पास नहीं देना चाहता क्योंकि यदि ऐसा हो गया तो वह खुद घाटी में अप्रासंगिक हो जायेगा। भारतीय जनता पार्टी ने अनुच्छेद 370 पर  इतनी स्पष्ट बचनबद्धता के बावजूद लोकतांत्रिक परम्पराओं के अनुरूप इस विषय पर बहस, बातचीत और आपसी संवाद को ही प्रोत्साहित किया जिसका स्वागत किया जाना चाहिये।

Courtesy: http://www.udayindia.in/

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