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अनुच्छेद 370 पर बहस जरूरी क्यों
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अनुच्छेद 370 की आड़ में जम्मू कश्मीर राज्य के लोगों से किये जा रहे इस अन्याय पर एक आध को छोड़ कर कमोवेश सभी राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थाएं चुप्पी धारण किये हुये हैं। दलितों, पिछड़े वर्गों और जनजाति समाज के लोगों के अधिकारों के लिये जो राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थाएं सारे देश में हल्ला मचाती रहतीं हैं, वे जम्मू कश्मीर में घुसते ही इन वर्गों के साथ हो रहे अन्याय पर चुप्पी साध लेती हैं।

1950 से लेकर अब तक देश में एक ही बहस चल रही है कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाना चाहिये या नहीं? इसको हटाने के लिये 1950-53 तक राज्य के एक राजनैतिक दल प्रजा परिषद ने आन्दोलन भी चलाया था जिसमें 15 लोग पुलिस की गोलियों से मारे गये थे।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 पर चर्चा करने से पहले उस  की प्रकृति को समझना जरुरी है। संघीय संविधान में विभिन्न विषयों की तीन सूचियां हैं।

1. राज्य सूची

2. संघीय या केन्द्रीय सूची

3. समवर्ती सूची

राज्य सूची में जो विषय सूचीबद्ध किये गये हैं उन पर राज्य की विधान सभा कानून बना सकती है।

केन्द्रीय सूची में जो विषय दिये गये हैं, उन पर संसद कानून बना सकती है और समवर्ती सूची में जो विषय हैं उन पर संसद या राज्य विधान सभा कानून बना सकती है लेकिन यदि दोनों में टकराव होता है तो संसद का बनाया कानून मान्य होगा।

जहां तक जम्मू कश्मीर का ताल्लुक है, राज्य सूची को लेकर तो स्थिति अन्य राज्यों के समान ही है, लेकिन संघीय या केन्द्रीय सूची और समवर्ती सूची को लेकर स्थिति थोड़ा भिन्न है।

राष्ट्रपति राज्य सरकार की सलाह पर केन्द्रीय सूची और समवर्ती सूची में से ऐसे विषयों की सूची तैयार करेगा, जो विषय, अधिमिलन प्रपत्र में लिखे गये विषयों से ताल्लुक रखते हों। ध्यान रहे जम्मू कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने देश की अन्य रियासतों के शासकों की ही तरह अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर सांविधानिक एकीकरण की प्रक्रिया में शामिल होने की घोषणा की थी। अधिमिलन प्रपत्र में रक्षा, विदेश सम्बंध, संचार और इन से जुड़े विषय शामिल थे। मोटे तौर पर केन्द्रीय सूची और समवर्ती सूची में दिये गये विषयों में से, इन तीन विषयों से सम्बंधित विषयों की एक अलग सूची तैयार की जायेगी और राष्ट्रपति उसे अधिसूचित करेंगे। संसद इन अधिसूचित विषयों पर ही कानून बना सकती है। यह सूची तैयार करने और उसे अधिसूचित करने के लिये राष्ट्रपति के लिये जरुरी है कि वे राज्य सरकार से सलाह अवश्य कर लें। यह सलाह स्वीकार करने या न करने की बंदिश राष्ट्रपति पर नहीं है।

इन दोनों सूचियों में से उपरोक्त विधि से चयनित विषयों को अधिसूचित करने के बाद जो अन्य विषय बचते हैं, उनमें से जिन विषयों को राष्ट्रपति चाहें अधिसूचित कर सकते हैं और इन अधिसूचित विषयों पर भी संसद कानून बना सकती है, बस शर्त केवल इतनी ही है कि इन विषयों को अधिसूचित करते समय राज्य सरकार की केवल सलाह लेने भर से काम नहीं बनेगा बल्कि उस के लिये राज्य सरकार की सहमति अनिवार्य है।

अब बात रही संघीय संविधान की। संघीय संविधान के दो अनुच्छेद, 1और 370 तो जम्मू कश्मीर में स्वत ही लागू हैं लेकिन संविधान के शेष अनुच्छेद व अनुसूचियां राज्य में लागू नहीं हैं। संघीय संविधान के शेष प्रावधानों को राष्ट्रपति अपने आदेश द्वारा या तो उनके मूल रुप में ही या फिर अपवादों व उपान्तरणों सहित राज्य में लागू कर सकते हैं। लेकिन इसमें एक पेंच है। राष्ट्रपति संघीय संविधान के उन्हीं प्रावधानों को अपवादों व उपान्तरणों सहित राज्य में लागू कर सकते हैं जो अधिमिलन प्रपत्र में चिन्हित तीन विषयों रक्षा, संचार व विदेशी मामलों से सम्बंधित हो। लेकिन इसके लिये भी उन्हें एक बार तो राज्य सरकार से सलाह करनी ही पड़ेगी।

फिलहाल अनुच्छेद 370 को हटाने की बात तो कोई कर ही नहीं रहा। देश के बुद्धिजीवी वर्ग, विधि विशारदों और संविधान विशेषज्ञों में इस बात को लेकर बहस छिड़ी है कि अनुच्छेद 370 से जम्मू कश्मीर के आम लोगों को कोई लाभ भी है या उलटा इससे उनको नुक़सान हो रहा है…

अधिमिलन प्रपत्र में दिये गये तीन विषयों से सम्बंधित संघीय संविधान के प्रावधानों के अतिरिक्त बचे अन्य अनुच्छेदों को भी राष्ट्रपति एक आदेश द्वारा राज्य में लागू कर सकते हैं। लेकिन यह आदेश जारी करने से पहले राष्ट्रपति के लिये यह अनिवार्य है कि वे राज्य सरकार से इस मुद्दे पर सहमति प्राप्त करें।

इस पूरी कथा का तात्पर्य यह है कि संघीय संविधान जम्मू कश्मीर में स्वत प्रभावी नहीं होता। उसके वही प्रावधान राज्य में लागू होंगे जिनकी स्वीकृति राज्य देगा। इतना ही नहीं यदि राज्य चाहे तो वह जम्मू कश्मीर के लिये संघीय संविधान में भी संशोधन और ड्डस्रस्रद्बह्लद्बशठ्ठ कर सकता है और उसने ऐसा अनेक बार किया भी है। लेकिन तब प्रश्न पैदा होता है कि यदि संघीय संविधान राज्य में लागू ही नहीं होता तो आखिर प्रदेश का प्रशासन कैसे चलता है? इसका उत्तर मजेदार है। जम्मू कश्मीर राज्य का अपना संविधान है। यही संक्षेप में अनुच्छेद 370 है।

1950 से लेकर अब तक देश में एक ही बहस चल रही है कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाना चाहिये या नहीं? इसको हटाने के लिये 1950-53 तक राज्य के एक राजनैतिक दल प्रजा परिषद ने आन्दोलन भी चलाया था जिसमें 15 लोग पुलिस की गोलियों से मारे गये थे।

लेकिन इस विषय पर बात करने से पहले यह जान लेना जरुरी है कि रियासत के शासक द्वारा अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने का स्वाभाविक परिणाम क्या था? क्योंकि आम तौर पर बार बार यह दोहराया जाता है कि जम्मू कश्मीर के भारत के साथ सम्बंध अनुच्छेद 370 द्वारा संचालित होते हैं। जम्मू कश्मीर और अन्य रियासतों के बारे में भी यह कहा जाता है कि अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने के कारण ही वे भारत का हिस्सा बनीं। कई बार तो यह भी कहा जाता है कि अनुच्छेद 370 समाप्त हो जाने का अर्थ राज्य का भारत से अलग हो जाना होगा। अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर को लेकर की गई यह व्याख्या ही गलत है। रियासतें अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर से पहले भी और बाद में भी भौगोलिक लिहाज से भारत का ही भू भाग थीं। अन्तर केवल इतना ही था कि रियासतों में सांविधानिक प्रशासन व्यवस्था अलग थी और शेष भारत में अलग थी। रियासतों के शासकों द्वारा अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने का परिणाम केवल इतना ही था कि दोनों सांविधानिक प्रशासन व्यवस्थाओं के स्थान पर निर्मित हो रहे नये संविधान को स्वीकारने और उसके निर्माण में भागीदारी सुनिश्चित की गई।

एक और तथ्य अनुच्छेद 370 के बारे में चर्चा करने से पहले जानना अनिवार्य है। देश भर में सैकड़ों राजाओं ने अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करके अपनी रियासतों के,देश की नई सांविधानिक व्यवस्था से एकीकृत होने की प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, लेकिन जम्मू कश्मीर को लेकर ही संघीय संविधान में अलग से अनुच्छेद 370 डालने की जरुरत क्यों पड़ी?

घाटी के गुज्जर-बकरवाल, बल्ती, शिया और जनजाति समाज तो इस मामले में बहुत ज्यादा मुखर है। ये सभी पूछ रहे हैं साठ साल में इस अनुच्छेद से उन्हें क्या लाभ मिला?

संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश 

जिन दिनों विभिन्न रियासतों के शासकों द्वारा अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर देने के बाद, रियासतों के संविधान और नये बन रहे संघीय संविधान के एकीकरण को लेकर विभिन्न स्तरों पर कार्य हो रहा था, उन दिनों उन सभी प्रक्रियाओं को जम्मू कश्मीर में व्यावहारिक स्तर पर लागू करना संभव नहीं था क्योंकि रियासत पर पड़ोसी देश पाकिस्तान का परोक्ष आक्रमण हो चुका था और वहां लड़ाई चल रही थी। रियासत के कुछ हिस्सों पर पाकिस्तान ने कब्जा भी कर लिया था। बाकी रियासतों के शासकों एवं जन प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के बाद सांविधानिक एकीकरण की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी, लेकिन जम्मू कश्मीर में चल रहे युद्ध के कारण यह संभव नहीं था। उधर संघीय संविधान रचना का काम पूरा हो चुका था। संविधान के अनुच्छेद एक में नये बन रहे भारत गणतंत्र के राज्यों की सूची दी गई थी। उस सूची में तो जम्मू कश्मीर का नाम था। लेकिन इस अनुच्छेद का सांविधानिक एकीकरण की प्रक्रिया से कोई ताल्लुक नहीं था। इसका अर्थ तो केवल यह था कि यह राज्य भी अन्य किसी भी राज्य की तरह भारत का अंग है। लेकिन असली प्रश्न था कि जम्मू कश्मीर राज्य की सांविधानिक शासन व्यवस्था का संघीय सांविधानिक व्यवस्था से समावेश कैसे किया जाये? क्योंकि युद्ध के कारण इस राज्य के शासक और जन प्रतिनिधियों से सांविधानिक एकीकरण की प्रक्रिया की पद्धति को लेकर समुचित बातचीत नहीं हो पाई थी। रियासत में जम्मू कश्मीर संविधान अधिनियम 1939 के अन्तर्गत शासन व्यवस्था चल रही थी। इस समस्या के समाधान के लिये संविधान के प्रस्तावित प्रारूप में एक अस्थाई अनुच्छेद 306 ए जोड़ा गया। यही अनुच्छेद बाद में अनुच्छेद 370 बना। इस अनुच्छेद में वह प्रक्रिया निर्धारित की गई थी जिसके अनुसार संघीय व प्रादेशिक शासन व्यवस्था का सांविधानिक एकीकरण होना था।

इस पृष्ठभूमि के बाद यह बहस चलाई जा सकती है कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाना चाहिये या नहीं? हटाने की सांविधानिक प्रक्रिया क्या हो सकती है, यह बाद का विषय है। फिलहाल अनुच्छेद 370 को हटाने की बात तो कोई कर ही नहीं रहा। देश के बुद्धिजीवी वर्ग, विधि विशारदों और संविधान विशेषज्ञों में इस बात को लेकर बहस छिड़ी है कि अनुच्छेद 370 से जम्मू कश्मीर के आम लोगों को कोई लाभ भी है या उलटा इससे उनको नुक़सान हो रहा है और उनको अनेक सांविधानिक अधिकारों से बंचित किया जा रहा है? भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा है कि वह संघीय संविधान के अनुच्छेद 370 के मामले में सभी से बातचीत करेगी और पार्टी इस अनुच्छेद को समाप्त करने की अपनी बचनबद्धता दोहराती है। पार्टी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह ने यह भी कहा कि इस बात पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये कि इस अनुच्छेद से राज्य के लोगों को लाभ हो रहा है या हानि। हो सकता है कि इस अनुच्छेद से लाभ केवल अब्दुल्ला परिवार और उनके गिने चुने व्यवसायिक मित्रों को हो रहा हो और वे उसको बरकरार रखने के लिये जम्मू कश्मीर के लोगों की आड़ ले रहे हों। वैसे भी जहां तक राज्य की आम जनता का ताल्लुक है, वह तो इस अनुच्छेद के कारण पैदा हुये भेदभाव की चक्की में बुरी तरह पिस रही है। जो मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को मिले हुये हैं, उनसे राज्य की जनता को महरुम रखा जा रहा है। वे सभी अधिकार और सुविधाएं, जो अन्य सभी को, विशेष कर दलित और पिछड़े वर्गों को मिलती हैं, जम्मू कश्मीर में नहीं मिल रहीं। ऐसा नहीं कि फारूक और उमर, दोनों बाप बेटा अनुच्छेद 370 के कारण राज्य की आम जनता को हो रहे नुकसान को जानते न हों। लेकिन इसके बावजूद वे अडे हुये हैं कि इसकी रक्षा के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हैं।

राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो और भी दो कदम आगे निकल गये। उन का कहना था कि लोकसभा में कोई पार्टी चाहे कितनी भी सीटें क्यों न जीत ले, लेकिन वह अनुच्छेद 370 को हाथ नहीं लगा सकती। यदि कोई सरकार अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के लिये सांविधानिक विधि का प्रयोग भी करती है तो उन्हें (अब्दुल्ला परिवार को) इस बात पर नये सिरे से विचार करना होगा कि जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा रहे या न रहे। उधर उनके पिता श्री दहाड़ रहे हैं कि जब तक उनके शरीर में ख़ून का अन्तिम कतरा है, तब तक वह अनुच्छेद 370 को समाप्त नहीं होने दूंगा। उन्होंने धमकी तक दी कि जब तक नेशनल कान्फ्रेंस का एक भी कार्यकर्ता जिन्दा है तब तक अनुच्छेद 370 की ओर कोई आंख उठा कर नहीं देख सकता। वैसे तो फारूक अब्दुल्ला केन्द्रीय सरकार में मंत्री रहे हैं, लेकिन जैसे ही वे बनिहाल सुरंग पार कर घाटी में प्रवेश करते हैं तो उन की भाषा धमकियों की हो जाती है और धमकियां भी वे चीन और पाकिस्तान को देने की बजाय, जो राज्य के दो हिस्सों गिलगित और बल्तीस्तान के लोगों, खास कर शिया समाज, का दमन कर रहे है, को न देकर भारत को ही देने लगते हैं। उनका मानना है कि नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने का अर्थ होगा, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का समर्थन करना। इसीलिये उमर अब्दुल्ला पूरी घाटी में लोगों को ललकारते घूम रहे हैं कि लोग मोदी का समर्थन न करें। अपनी बात लोगों में रखने का अब्दुल्ला परिवार को लोकतांत्रिक अधिकार है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। अपनी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस की नीतियां जनता को बताने और उस आधार पर समर्थन मांगना भी उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन चुनाव परिणामों के आधार पर यह कहना कि जम्मू कश्मीर देश का हिस्सा नहीं रहेगा, देशद्रोह ही नहीं बल्कि देश के शत्रुओं का परोक्ष समर्थन करना ही कहा जायेगा।

दरअसल इस बार चुनावों में राज्य की आम जनता ही अनुच्छेद 370 को लेकर अब्दुल्ला परिवार से प्रश्न पूछ रही है। घाटी के गुज्जर-बकरवाल, बल्ती, शिया और जनजाति समाज तो इस मामले में बहुत ज्यादा मुखर है। ये सभी पूछ रहे हैं साठ साल में इस अनुच्छेद से उन्हें क्या लाभ मिला? जनता के इन प्रश्नों का अब्दुल्ला परिवार के पास कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है। अब वे सार्वजनिक रुप से यह तो कह नहीं सकते कि आपको लाभ हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन हमारे परिवार और हमारे व्यवसायिक दोस्तों को तो बहुत लाभ हुआ है। जनता को कोई संतोषजनक उत्तर न दे पाने के कारण ही बाप बेटा धमकियों पर उतर आये हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो धमकियां देते काफी दूर निकल गये। उन्होंने कहा यदि मोदी सत्ता में आते हैं तो उनको समर्थन देने की बजाय मेरे लिये पाकिस्तान चले जाना ही श्रेयस्कर रहेगा। अपने इस इरादे को और भी दृढ़ करते हुये उन्होंने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान जाने के लिये अब उन्हें दिल्ली जाने की भी जरुरत नहीं है। घाटी में ही दूसरी ओर मुज्जफराबाद जाने के लिये बस मिल जाती है और वे उसी से सरहद पार कर जायेंगे। इससे यह तो स्पष्ट हो ही रहा है कि मुज्जफराबाद तक बस चलवाने के लिये अब्दुल्ला परिवार ने जो कई साल यत्न किया था, उस के पीछे उनकी अपनी भविष्य की योजनाएं भी एक कारण था। एक संकेत यह भी मिलता है कि आज तक एल.ओ.ए.सी पर उग्रवादियों का सरहद से पार आना जाना क्यों नहीं रुक सका?

1954 की यह अधिसूचना एक प्रकार से जम्मू कश्मीर राज्य द्वारा अपने लिये तैयार किया गया नया संघीय संविधान ही था जिसकी मूल आत्मा मूल संघीय संविधान से बिल्कुल नहीं मिलती थी।

किसी भी सांविधानिक व्यवस्था की श्रेष्ठता की अंतिम कसौटी बहुजन हिताय बहुजन सुखाय ही है। विशिष्ट जन हिताय विशिष्ट जन सुखाय नहीं हो सकती। कौन सी व्यवस्था बहुजन हिताय है इसका निर्णय भी लोकतंत्र में जनता ही करती है।

अनुच्छेद 370 का सांविधानिक दुरुपयोग 

अनुच्छेद 370 के दुरुपयोग का एक उदाहरण ही पर्याप्त है। राज्य की संस्तुति पर राष्ट्रपति ने संविधान आदेश (जम्मू कश्मीर में प्रभावी) 1954 अधिसूचित किया जिसके अनुसार संघीय संविधान के अनेक प्रावधान राज्य में प्रभावी बनाये गये। लेकिन संघीय संविधान के मूल प्रारूप में आश्चर्यजनक ढंग से रद्दोबदल कर दिया गया। 1954 की यह अधिसूचना एक प्रकार से जम्मू कश्मीर राज्य द्वारा अपने लिये तैयार किया गया नया संघीय संविधान ही था जिसकी मूल आत्मा मूल संघीय संविधान से बिल्कुल नहीं मिलती थी। बाद में 1954 की इस अधिसूचना में निरन्तर संशोधन होते रहे और अब तक भी हो रहे हैं। यह ठीक है कि अनुच्छेद 370 ने राष्ट्रपति को अधिकार दिया है कि वे संघीय संविधान के किसी प्रावधान को अपवादों एवं उपांतरणों सहित लागू करने के लिये अधिकृत किया हुआ है, लेकिन क्या उपांतरणों के नाम पर संघीय संविधान में संशोधन ही नहीं, उसमें इच्छानुसार कोई नया अनुच्छेद जोड़ा भी जा सकता है? यदि ऐसा है, तब तो इसका अर्थ यह हुआ कि जम्मू कश्मीर की विधान सभा भारत का नया संविधान तैयार कर सकती है, जो जम्मू कश्मीर में लागू हो सके। अर्थात अनुच्छेद 370 ने राज्य की उस समय की संविधान सभा को जम्मू कश्मीर का संविधान बनाने के लिये ही नहीं अधिकृत किया बल्कि राज्य पर लागू करने के लिये भारत का संविधान बनाने के लिये भी अधिकृत कर दिया। और सचमुच ही राज्य सरकार की संस्तुतियां पर राष्ट्रपति ने संविधान आदेश (जम्मू कश्मीर पर प्रभावी) 1954 के माध्यम से, उसे समय समय पर संशोधित करते हुये यही काम प्रारम्भ कर दिया।

संविधान में नया अनुच्छेद जोड़ा जाना 

अनुच्छेद 370 के दुरुपयोग का सबसे चौंकाने वाला मामला संघीय संविधान में राष्ट्रपति द्वारा मौलिक अधिकारों के अध्याय में एक नया अनुच्छेद जोडऩे का है। राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 370 का उपयोग करते हुये संविधान में एक नया अनुच्छेद 35 ए जोड़ा। इसके अनुसार-

इस संविधान (संघीय संविधान) में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुये भी, जम्मू कश्मीर राज्य में प्रवृत्त ऐसी कोई विद्यमान विधि और उसके पश्चात् राज्य के विधान मंडल द्वारा अधिनियमित ऐसी कोई विधि –

(क) जो उन व्यक्तियों के वर्गों को परिभाषित करती है जो जम्मू कश्मीर राज्य के स्थायी निवासी हैं या होंगे, या

(ख) जो-

  • राज्य सरकार के अधीन नियोजन,
  • राज्य में स्थावर सम्पत्ति के अर्जन,
  • राज्य में बस जाने, या

2002 में जब इस अधिनियम के अन्तर्गत देश भर के लोकसभा क्षेत्रों का जनसंख्या के आधार पर नये सिरे से परिसीमन किया गया तो जम्मू कश्मीर राज्य ने अपने यहां के छह लोक सभा क्षेत्रों का नये सिरे से सीमांकन करवाने से इंकार कर दिया।

छात्रवृतियों के या ऐसी अन्य प्रकार की सहायता के जो राज्य सरकार प्रदान करे, अधिकार की बाबत ऐसे स्थायी निवासियों को कोई विशेष अधिकार और विशेषाधिकार प्रदत्त करती है या अन्य व्यक्तियों पर कोई निर्बन्धन आरोपित करती है, इस आधार पर शून्य नहीं होगी कि वह इस भाग के किसी उपबन्ध द्वारा भारत के अन्य नागरिकों को प्रदत्त किन्हीं अधिकारों से असंगत है या उनको छीनती या न्यूनतम करती है।

इस नये अनुच्छेद का प्रभाव केवल भारत के उन नागरिकों पर ही नहीं पड़ रहा जो जम्मू कश्मीर राज्य के स्थायी निवासी हैं बल्कि यह नया अनुच्छेद एक प्रकार से भारत के अन्य नागरिकों से वह अधिकार भी छीन रहा है जो उन्हें संघीय संविधान ने प्रदान किये हैं। यदि मान भी लिया जाये कि अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत जम्मू कश्मीर राज्य के उन भारतीय नागरिकों को जो जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी हैं, विशेष सुविधाएं या अधिकार दे सकता है तो क्या वह भारत के अन्य नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीन भी सकता है? दरअसल राष्ट्रपति के संविधान आदेश (जम्मू कश्मीर पर लागू) 1954 ने अनुच्छेद 370 की आड़ में भारत के नागरिकों का ही वर्गीकरण कर दिया। प्रथम भारत के वे नागरिक जो जम्मू कश्मीर राज्य के स्थाई निवासी हैं और द्वितीय भारत के वे नागरिक जो जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं हैं। भारत के नागरिकों का इस प्रकार का वर्गीकरण करने का अधिकार न तो जम्मू कश्मीर की विधान सभा को है और न ही उसकी संस्तुति के आधार पर संघीय संविधान का संशोधन करके यह वर्गीकरण करने का अधिकार राष्ट्रपति को है और न ही अनुच्छेद 370 इस प्रकार का वर्गीकरण करता है। यह एक प्रकार से अनुच्छेद 370 का सांविधानिक दुरुपयोग है।

दलितों व अन्य जनजातिय समाज से भेदभाव 

भारत सरकार ने दलितों के कल्याण के लिये अनेक प्रकार के विधिक प्रावधानों की रचना की है। इसी प्रकार समाज के पिछड़े वर्गों व जनजाति समाज को लाभ पहुंचाने के लिये अनेक प्रावधान किये हैं। लेकिन इन अधिनियमों का लाभ जम्मू कश्मीर के दलितों व पिछड़ों को नहीं मिल सकता। क्योंकि अनुच्छेद 370 के कारण ये प्रावधान जम्मू कश्मीर राज्य में लागू नहीं हो सकते। यदि जम्मू कश्मीर सरकार चाहे तभी ये अधिनियम लागू होंगे। लेकिन दुर्भाग्य से जम्मू सरकार इन अधिनियमों के प्रदेश में लागू करने के पक्ष में नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि अनुच्छेद 370 केवल भारत के उन नागरिकों से भेदभाव नहीं करता जो जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं हैं बल्कि जम्मू कश्मीर के उन नागरिकों के अधिकारों का भी हनन करता है जो राज्य के स्थायी निवासी हैं। राज्य सरकार ने अभी तक विधान सभा में जनजाति समाज के लिये सीटों का आरक्षण नहीं किया है।

चुनावों की दूषित प्रणाली 

केन्द्र सरकार के लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम को राज्य सरकार ने अनुच्छेद 370 की आड़ लेकर पूरी तरह राज्य में लागू नहीं किया। 2002 में जब इस अधिनियम के अन्तर्गत देश भर के लोकसभा क्षेत्रों का जनसंख्या के आधार पर नये सिरे से परिसीमन किया गया तो जम्मू कश्मीर राज्य ने अपने यहां के छह लोक सभा क्षेत्रों का नये सिरे से सीमांकन करवाने से इंकार कर दिया। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या राज्य सरकार देश भर में हो रही परिसीमन प्रक्रिया को अपने यहां रोक सकती है? अनुच्छेद 370 की आड़ में राज्य सरकार ने जम्मू कश्मीर में यही काम किया है। इसका अर्थ है कि राज्य के छह लोक सभा क्षेत्रों में दूषित जनसंख्या प्रतिनिधित्व हुआ है।

अनुच्छेद 370 के नाम पर जम्मू कश्मीर सरकार ने संघीय संविधान के इन प्रावधानों को राज्य में लागू नहीं किया और जमीनी स्तर पर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को बाधित किया।

लोकतंत्र के सशक्तिकरण का विरोध 

संघीय संसद ने देश भर में स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र के सशक्तिकरण हेतु संविधान में 73वां और 74वां संशोधन किया गया। इन नये प्रावधानों के अन्तर्गत पंचायतों व नगरपालिकाओं के चुनावों को सांविधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत लाया गया और स्थानीय नलिकाएं को अधिक शक्तियां प्रदान की गईं। लेकिन अनुच्छेद 370 के नाम पर जम्मू कश्मीर सरकार ने संघीय संविधान के इन प्रावधानों को राज्य में लागू नहीं किया और जमीनी स्तर पर लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को बाधित किया।

लिंग भेद को प्रोत्साहन 

राज्य सरकार ने राज्य के संविधान में राज्य के स्थायी निवासियों के लिये विशेष प्रावधान किये। वे प्रावधान संघीय संविधान की मूल भावना के विपरीत थे। लेकिन स्थायी निवासी के नाम पर किये जा रहे भेदभाव को  सुरक्षित करवाने के लिये अनुच्छेद 370 के नाम पर राष्ट्रपति से संघीय संविधान में एक नया अनुच्छेद 35 ए जुडवाया। इस प्रकार पूरी तरह घेराबन्दी करने के उपरान्त राज्य के उन स्थायी निवासियों को जो महिला थीं किसी ऐसे नागरिक के साथ जो राज्य का स्थायी निवासी न हो, शादी करने पर उसे सारे अधिकारों से महरुम कर दिया। अनुच्छेद 370 के नाम पर लिंग भेद का यह निकृष्टतम उदाहरण ही कहा जा सकता है।

राजनैतिक दलों की असफलता 

अनुच्छेद 370 की आड़ में जम्मू कश्मीर राज्य के लोगों से किये जा रहे इस अन्याय पर एक आध को छोड़ कर कमोवेश सभी राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थाएं चुप्पी धारण किये हुये हैं। दलितों, पिछड़े वर्गों और जनजाति समाज के लोगों के अधिकारों के लिये जो राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थाएं सारे देश में हल्ला मचाती रहतीं हैं, वे जम्मू कश्मीर में घुसते ही इन वर्गों के साथ हो रहे अन्याय पर चुप्पी साध लेती हैं।

अब्दुल्ला परिवार की चिन्ता इस बात को लेकर है कि अनुच्छेद 370 की उपयोगिता को लेकर चल रही यह बहस अब कश्मीर की विभिन्न घाटियों तथा श्रीनगर घाटी, गुरेज घाटी और लोलाब घाटी तक में होने लगी है और इसके पक्ष-विपक्ष दोनों अखाड़ों में बहस केन्द्रित हो रही है। नेशनल कान्फ्रेंस इस प्रश्न पर किसी भी ढंग से बहस को रोकना चाहती है क्योंकि इससे पहल जम्मू कश्मीर की आम जनता के हाथ आ जायेगी। अब्दुल्ला परिवार किसी भी स्थिति में यह पहल जनता के पास नहीं देना चाहता क्योंकि यदि ऐसा हो गया तो वह खुद घाटी में अप्रासंगिक हो जायेगा। भारतीय जनता पार्टी ने अनुच्छेद 370 पर  इतनी स्पष्ट बचनबद्धता के बावजूद लोकतांत्रिक परम्पराओं के अनुरूप इस विषय पर बहस, बातचीत और आपसी संवाद को ही प्रोत्साहित किया जिसका स्वागत किया जाना चाहिये।

Courtesy: http://www.udayindia.in/

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