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1962: नेहरू ने देश का किया बंटाधार!

नेविल मैक्सविल ने अपने ब्लॉग पर ‘हैंडरसन ब्रुक्स की जो रिपोर्ट रिलीज की है, वह स्पष्ट रूप से इशारा करती है कि 1962 का भारत-चीन यद्ध, जवाहरलाल नेहरू की गलतियों और नासमझी का नतीजा था। इस युद्ध के लिए भारत तैयार नहीं था। परिणाम यह हुआ कि इस युद्ध में हमारा देश बुरी तरह पराजित हुआ और दुनिया भर में अपमानित हुआ। दूसरा, उनकी नासमझी के कारण भारत की जमीन का विशाल टुकड़ा भी चीन के पास चला गया।
भारतीय सेना यदि 72 से 120 घंटों में पाकिस्तानियों को खदेड़ सकती थी तो ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’बनने का कोई मतलब ही नहीं था।
हैंडरसन ब्रुक्स की ये रिर्पोट करीब 52 वर्ष पुरानी है। यह रिपोर्ट नेविल मैक्सविल के पास थी। रिपोर्ट एक विदेशी के पास कैसे पहुंची, उस समय यह अपने आप में चर्चा का एक विषय होना चाहिए था। इस रिपोर्ट के अलग-अलग हिस्से उनकी तरफ से रिलीज किए जाते रहे हैं। उनकी किताब में, लेखों में और अब उन्होंने एक मूल दस्तावेज रिलीज किया है। नेता भी आपकी-हमारी तरह सामान्य इंसान होते हैं, लेकिन इस देश में हम अपने नेताओं को एक ऊंचे स्थान बैठा कर व्यक्तिपूजा में लग जाते हैं। नतीजा होता है कि उनकी गलतियों को हम अनदेखा कर देते हैं। जिससे देश की सुरक्षा संबंधी गलतियों से लेकर तमाम तरह की समस्याएं सामने आती हैं।
भारत-चीन सीमा बहुत संवेदनशील और सक्रिय है। हम आज तक वहां की अपनी जमीन खो रहे हैं। जब हम कश्मीर जीत रहे थे, उस समय ‘पकिस्तान अधिकृत कश्मीर बन गया, क्योंकि जवाहरलाल नेहरू संयुक्त राष्ट्र में चले गए। व्यक्ति पूजा से हट कर, सुरक्षा के मसले पर अगर नेहरू को जांच के घेरे में लिया जाए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि कश्मीर की समस्या भी उन्हीं की देन है। भारतीय सेना यदि 72 से 120 घंटों में पाकिस्तानियों को खदेड़ सकती थी तो ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’बनने का कोई मतलब ही नहीं था।
नेहरू का संयुक्त राष्ट्र जाना यह शंका पैदा करता है कि वे नहीं चाहते थे कि पूरे कश्मीर पर भारत का अधिकार हो। यह मेरा व्यक्तिगत अनुमान है। क्योंकि, 1947 से आज तक चल रही नेहेरूवियन पॉलिसी से देश को जो नुकसान हुआ है, चाहे वह सुरक्षा के मामले में हो, चाहे जमीनी नुकसान हो, चाहे कैजुवल्टिज हों, चाहे भारतीय सेना को अवमानना का हो, वह भी नेहरू की नीतियों की देन है। ये खुद का लगाए हुए घाव हैं।
हैंडरसन ब्रुक्स की रिपोर्ट को बारीकी से अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस युद्ध के लिए हमारी सेना तैयार नहीं थी। सैनिकों के पास जूतों जैसी आवश्यक वस्तुएं तक नहीं थीं। हमारी सैनिकों की संख्या भी उतनी नहीं थी। हमारे हथियार पुराने थे। गोला बारूद नहीं था। उसके बावजूद, नेहरू के हुकुम पर फॉरवर्ड पोश्चर की नीति बनी। इस नीति के आधार वाले व्यक्ति थे रक्षा मंत्री, गुप्तचर विभाग के निदेशक, विदेश सचिव, रक्षा सचिव और जवाहरलाल नेहरू। उनके अनुसार, फॉरवर्ड पोश्चर लेने का मतलब था कि सीमा पर चीन जो पोस्ट बनाए हुए है, उसके सामने अगर हम अपनी पोस्ट बनाते हैं, तो चीन रिऐक्ट नहीं करेगा, चीन काउंटर अटैक नहीं करेगा।
चीनी या पाकिस्तानियों को पीछे धकेलने के लिए जब तक हम आक्रामक रणनीति नहीं बनाएंगे, तब तक हम जीत नहीं पाएंगे।
दुश्मन की पुरी तैयारी के बावजूद, अगर हमारी सैनिक तैयारी उस स्तर की न हो और लड़ाई का साजो-सामान भी उस स्तर का न हो, जहां बटालियन तैनात हो, वहां एक डिविजन के तादाद में सैनिक हों, तो ऐसा कहना कि वे हमला नहीं करेंगे, रणनीतिक रूप से बेहद दोषपूर्ण है। गुप्तचर ब्यूरो के प्रमुख का यह कहना कि वे सब सामान्य नागरिक थे, यह मिलिट्री इनपुट की अनदेखा करना था। जब युद्ध सेना को लडऩा हो तो एक प्रोफेशनल एडवाईस को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्हें खुद नहीं पता था कि इंप्लॉयमेंंट ऑफ मिलिटरी पॉवर, यूज ऑफ मिलिटरी पॉवर को रणनीति में किस तरह इस्तेमाल किया जाए, जिससे देश की जीत हो सके। सिविलियन बाबुओं की सलाह पर नेहरू का चलना, यह बताता है कि उन्हें मिलिट्री से कुछ चिढ़ थी। सुनने में ऐसा भी आया है कि आजादी के बाद उन्होंने 4-5 नौकरशाहों को अपने हाथ से चिट्ठी लिखी थी, जिसमें कहा गया था कि आजाद भारत में चुनी हुई सरकार को मिलिट्री के अतिरिक्त कोई और चुनौती नहीं दे सकता। इसलिए मिलिट्री को कमजोर करते हुए उसे हाशिए पर धकेल दिया जाय। उस पत्र में यह भी कहा गया था कि उसे पढऩे के बाद फाड़ दिया जाए।
अगर ऐसा कोई पत्र नहीं लिखा गया था तो यह साफ है कि नेहरू अपने नौकरशाहों के साथ ज्यादा खुश थे। वह अपने नौकरशाहों के द्वारा ही युद्ध जीतना चाहते थे या फिर रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन के द्वारा लडऩा चाहते थे। जिन्हें सेना की क्षमता का उपयोग करना एवं मिलिट्री को युद्ध के लिए तैयार करना नहीं आता था। इसका परिणाम हुआ कि चीन के सैनिकों की पोस्ट के समक्ष अपनी पोस्ट लगाने का जो सपना वे देख रहे थे, उसका कोई असर नहीं हुआ। भारत ने वहां जो पोस्ट लगाई थी, उसे चीनियों ने घेर लिया। उनके पास ज्यादा तादाद में सैनिक थे। उनके पास लड़ाई का साजो-सामान हमसे कई गुणा बेहतर था। नतीजा यह हुआ कि हमें जगह-जगह मुंह की खानी पड़ी।
इसमें भारतीय सेना की भी कुछ गलतियां थीं। इस रिपोर्ट के मुताबिक, सेना प्रमुख जनरल बी.एम. कौल, जो जवाहरलाल नेहरू के दूर के रिश्तेदार थे, उन्होंने सलाहकार के पदों पर अपने लोगों को भरा। तत्कालीन ‘चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ’ का पद आज के ‘वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ के पद के बराबर था। पूरा स्टाफ वर्क उसके पास होता है। उस वक्त डिफेंस स्टॉफ का सीधा संपर्क नेहरू से होता था। मजे की बात यह थी कि वह आर्मी सप्लाई बोर्ड के जनरल थे। नॉन-कांबैट जनरल थे। अपनी कौम के लोगां को भरने के लिए नेहरू ने उन्हें चीफ ऑफ जनरल स्टाफ बना दिया। उसका नतीजा यह हुआ कि नॉन-कांबैट जनरल का प्रधानमंत्री से सीधा संपर्क हो गया और उसने वही करना शुरू कर दिया, जो जवाहरलाल नेहरू चाहते थे। नेहरू की नीति के मुताबिक उन्होंने फॉर्वर्ड पोस्ट ऑक्यूपाई करने की नीति लागू कर दी। लेकिन नीचे के पश्चिमी हाईकमान या पूर्वी हाईकमान और लोअर फॉर्मेशन इसके खिलाफ थे। उनकी प्रोफेशनल सलाह इसके खिलाफ थी। हमने दूसरी ओर से फॉरवर्ड पॉश्चर अपना कर उन्हें उकसा दिया। उसका नतीजा यह हुआ कि चाइनीज उत्तेजित हो गए और वे काउंटर अटैक पर चले गए, जबकि हमारी सेना तैयार नहीं थी।
युद्ध अधूरी तैयारी के साथ नहीं होता। इसकी तैयारी पहले से ही होनी चाहिए। सेना को शक्तिशाली बनाना एक सतत प्रक्रिया है। रणनीतिक रूप से महत्व की जगहों पर सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण आधारभूत संरचना का विकास की चाहिए।
उस वक्त इंटेलिजेंस ब्यूरो प्रमुख मल्लिक थे। उनका आकलन था कि चाइनीज काउंटर अटैक नहीं करेंगे। सपने के आधार पर युद्ध का लडऩा बेहद गैर-पेशेवर तरीका है। सन् 1944 से चाइनीज इस जमीन पर दावा करते आ रहे हैं। फिर भी भारत के हुक्मरान खुद को और देश को भूलभूलैया में इसलिए रखे रहे, क्योंकि मिलिट्री के बारे में जिन लोगों को प्रोफेशनल नॉलेज नहीं थी, वे सरकार के सलाहकार बने हुए थे।
इस देश की विडंबना है कि यहां रक्षा सचिव एक सिविलियन होता है, जिसेे मिलिट्री के बारे में कुछ पता नहीं होता। मैंने सुना है कि ‘रूल्स ऑफ बिजनेस, मिनिस्ट्री ऑफ डिफेंस की एक किताब है, जिसे गुप्त कर रखा जाता है। उसमें लिखा है कि रक्षा सचिव भारत की रक्षा के लिए जिम्मेदार होता है। सवाल है कि रक्षा सचिव किससे प्रतिक्रिया देगा – अपनी कलम से, अपनी नजरअंदाजी से, अपनी नासमझी से या अपनी फाइल से? वह किस चीज से भारत की रक्षा करेगा? रक्षा तो थलसेना, वायु सेना और नौसेना करती है। जिम्मेदारी तीनों की होनी चाहिए। यह भी एक नेहेरूवियन गलती है। उन्हें लगता था की मिलिट्री सत्ता पलट देगी।
हैंडरसन ब्रूक्स रिपोर्ट में लिखा है कि नेहरू की नासमझी के कारण लोअर फॉर्मेशन को मुंह की खानी पड़ी। ‘भारत की सोच सदियों की गुलामी से प्रभावित है। यही कारण है कि हम हर वक्त रक्षात्मक स्थिति में होते हैं। चीनी सामने खड़े थे और हम उनके सामने पोस्ट बना बनाते हुए सोच रहे थे कि वह आगे नहीं बढ़ेंगे। चीनी या पाकिस्तानियों को पीछे धकेलने के लिए जब तक हम आक्रामक रणनीति नहीं बनाएंगे, तब तक हम जीत नहीं पाएंगे। जो आदमी अपना गोल बचाता है, वह गोल की रक्षा कितनी भी कर ले, भूल-चूक से एक-दो गोल हो ही जाते हैं। जो टीम आक्रामक होकर खेलती है, वह दूसरी साइड में गोल करके ही आती है।
नेहरूवियन पॉलिसी के कारण भारत आज तक गलतफहमी में फंसा हुआ है। हैंडरसन ब्रुक्स की रिपोर्ट में कई बातें सामने आई हैं। उसमें एक खास बात यह है कि लद्दाख में हमारे पास लौजिस्टिक नहीं थी, सड़क नहीं थी, मूलभूत संरचना नहीं था, जिसके कारण युद्ध कर रहे सैनिकों को खाद्य सामग्री और एम्युनिशन नहीं भेजा जा सकता। हम एयर फोर्स पर पूरी तरह निर्भर थे। लेकिन हर जगह हवाई अड्डा नहीं था। इससे एयरफोर्स का लैंड करना सीमित हो गया था। सेना को साजो-सामान और अन्य आवश्यक सामग्री में कमी होने के कारण, उनकी क्षमता पर फर्क पडऩा स्वभाविक है।
आज देश में नेहरूवियन सुरक्षा मॉडल को खत्म करने की जरूरत है। यह मॉडल देश की सुरक्षा व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है।
युद्ध अधूरी तैयारी के साथ नहीं होता। इसकी तैयारी पहले से ही होनी चाहिए। सेना को शक्तिशाली बनाना एक सतत प्रक्रिया है। रणनीतिक रूप से महत्व की जगहों पर सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण आधारभूत संरचना का विकास की चाहिए। उस समय इन को तरजीह नहीं दी गई। चीन को उकसाने के बजाय कूटनीति से काम लेना चाहिए था। भारत की सेना बहुत प्रोफेशनल है, लेकिन कई अर्थों में उसकी सोच बहुत सीमित है।
हैंडरसन ब्रूक्स रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारतीय सेना ने अपनी क्षमता का सही इस्तेमाल किया होता तो भारत की जीत हो सकती थी। हमारे पास जो विकल्प थे, उनका उपयोग सही प्रकार से नहीं हुआ। नेहरू को जनरल बी.एम. कौल द्वारा नासमझी भरी दिए गए सलाहों के कारण दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना को हार का मुंह देखना पड़ा था।
आज देश में नेहरूवियन सुरक्षा मॉडल को खत्म करने की जरूरत है। यह मॉडल देश की सुरक्षा व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है। 21वीं सदी में युद्ध लडऩे और जीतने के लिए नई सोच, नई रणनीति और नई विदेश नीति की जरूरत है।
Courtesy: udayindia.in
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10 thoughts on “1962: नेहरू ने देश का किया बंटाधार!”

Yeah,yeah,everything is Nehrus fault as per Godi gadha’s. Godi gadha’s dont realize viewing history and passing unilateral judgements on what “could have/should have”,through the prism of present day and benefit of hindsight is not only an exercise in futility but shows an ignorant and biased mindset of the author.
M totaly agree
संघी सोच है आपकी जो इस पूरे लेख में झलकती है।मैकमोहन रेखा का नाम सुना है आपने ।बिना किताब पढ़े प्रवचन देने उतर गए हैं।आपकी घर की समस्या के लिए भी शायद नेहरू ही जिम्मेदार हैं।अच्छी चीज हुई तो सरदार पटेल को क्रेडिट देने लग जाएंगे कुछ बुरा हुआ तो नेहरू का दोष।पहले स्वयं ढंग से इतिहास का अध्धयन करें फिर कुछ बके।
Stop having pipe dreams. Every problem India faces is creation of Nehru. Starting from kashmir, security council, 1962 debacle, Indus water treaty and Tibet. List is endless. We have too many people who believe in personality cult and refuse to see the obvious.
ये हमारे राष्ट्र की विडंम्बना ही है कि आज भी कांग्रेस मोदी द्वारा नियुक्त नये आर्मी चीफ रावत पे सवाल उठा रही है।वीके कृष्ण मेनन जैसे रक्षामंत्री जो एक तरह से सेना को कमजोर करने के जिम्मेवार हैं उनकी व नेहरू की वजह से हम आजतक सीमा विवाद में फंसे हुए हैं।
इतना विचारोउत्तेजित लेख लिखने के लिए आपका लाख लाख धन्यवाद करता हूँ सर।सलाम आपको।
Perhaps he was over confident… a man who could be easily appeased by people with whom he was surrounded..This Included Krishna Menon…He thought panchsheel was to be revered and respected by all & it was panacea for all ills….. Perhaps his peace “Mantra” made armed forces sleepy. In those days we were ill equipped Militarily, our intelligence apparatus was also completely faulty..of course Mr. Nehru was Statesman albeit short of being a politician who should always wear specs of doubt and suspicion in the interest of his subjects.
” easily appeased ” is bit soft. Write phrase is “easily fooled” or rather “loved to be foled” by his Chinese his commi friends.
The quote may not be referring to 1947-48, when Nehru was adamant for ceasefire on 01 Jan, 1949 and the Army wanted 7 to 10 days as the Army was chasing Pakis down the hill. And that was a realty. And the result is for us to see !!! In the history of UN, this is the only instance where a winning side went for ceasefire rather than taking back own territory !!! So much for the wisdom of the leaders of that time!!!
Army wanted 7 to 10 days to clear bulges and to occupy features of tactical advantage not to recapture now POK.
Those who spent majority of time going hungry (satyagrah) at length and fighting against police action how could you expect them to to take military decision and fight a war and it is not yet late that we change our thinking in the right direction one may have superiority and best of weapons but their use is in hands of politicians who have no military acumen what so ever. Even little bit of semblance of training we got through NCC has become optional the need of the hour and years to come is to introduce compulsory military trg the same is covered partially in my blog bharatgaurav.co.in/2014/10/first-blood.html