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सेना और व्यवस्था में न पनपे आशंका
पाकिस्तान के एक जनरल ने कहा था- ‘अगर भारतीय सेना टूट जाए, तो भारत को तोड़ा जा सकता है।’ यह वह बिंदु है, जिस दिशा में पाकिस्तान लगातार सोच रहा है और चीन की भी नजर है। यह मुद्दा इस वक्त इसलिए प्रासंगिक है कि आम चुनाव में हमने देखा कि हमारे घर के अंदर धमा-चौकड़ी मची हुई थी। चुनाव प्रचार के दौरान अधिकतर संस्थाओं व संगठनों को राजनीतिक रंग दिया गया। मतदाताओं को जाति, धर्म और संप्रदाय के आधार पर बांटने की कोशिश हुई। कुछ सिरफिरे लोगों ने विशेष तबकों से भावनात्मक आधार पर वोटिंग की अपील की। ऐसी परिस्थिति में, हमने एक बार फिर पाया कि देश के लोग जाति, धर्म और संप्रदाय के आधार पर अंदरखाने बंटे हुए हैं और उन्हें जो कुछ चीजें जोड़ती हैं, उनमें एक महत्वपूर्ण चीज सरहद पर खड़ी हमारी सेना है। मोटे तौर पर कहें, तो हम इसलिए संभले हुए हैं, क्योंकि हमारी सेना संभली हुई है।
एक जाती हुई सरकार को नए थल सेनाध्यक्ष के नाम की घोषणा करनी चाहिए या यह काम उसे नई सरकार पर छोड़ देना चाहिए ?
लेकिन हमारी यह सेना क्यों और कैसे संभली हुई है और इसका ताना-बाना हमारी किन गलतियों से बिगड़ता है, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। सबसे पहले तो यह समझने की जरूरत है कि भारतीय फौज का यह ढांचा कोई दो सौ साल पुराना है। यानी यह ढांचा हमने नहीं बनाया, स्वतंत्र भारत ने नहीं बनाया, बल्कि यह ब्रिटिश राज के दौरान बना था। यह काबिल-ए-तारीफ है कि कोई दो सौ साल से यह ढांचा अपनी मजबूती के साथ खड़ा है। ब्रिटेन को भारत पर राज करना था, इसलिए उसने भारतीय सेना को ‘अराजनीतिक’ बनाए रखा। दूसरा तथ्य यह है कि भारतीय सेना में विभिन्न तबकों का प्रतिनिधित्व शुरू से होता आया है। अब जब हम लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग के थल सेना प्रमुख नियुक्त किए जाने के मुद्दे को इन दो तथ्यों की कसौटी पर कसें, तो लगता है कि कहीं और किसी रूप में यह ‘अराजनीतिक अंग’ प्रभावित हुआ है।
अपनी सरकार की विदाई की गिनती के कुछ दिन पहले मनमोहन सिंह सरकार ने लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग को देश का नया थल सेनाध्यक्ष बनाया। परंपरा यह रही है कि मौजूदा सेनाध्यक्ष के कार्यकाल के खत्म होने के करीब दो महीने पहले ही नए सेनाध्यक्ष के नाम की घोषणा कर दी जाती है। गौरतलब है कि मौजूदा थल सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह 31 जुलाई को अपने पद से सेवानिवृत्त होंगे। देश की बेहतरी के लिए ही परंपराएं बनती-बिगड़ती हैं और 31 जुलाई की तारीख के हिसाब से देखें, तो नए थल सेनाध्यक्ष की नियुक्ति की घोषणा अभी टल सकती थी। इसलिए सवाल उठता है कि एक जाती हुई सरकार को नए थल सेनाध्यक्ष के नाम की घोषणा करनी चाहिए या यह काम उसे नई सरकार पर छोड़ देना चाहिए, खासकर तब, जब मुख्य विपक्षी दल इस तरह की नियुक्तियों का लगातार विरोध कर रहा हो?
नए थल सेनाध्यक्ष की नियुक्ति से आम धारणा यह बनी है कि इस फैसले में मौजूदा सरकार, उनके संबंधित मंत्रलय और कैबिनेट की नियुक्ति समिति के अपने हित सधते हैं। देखा जाए, तो इस तरह का कोई भी आरोप या कोई भी स्थिति भारतीय सेना की सेहत के लिए सही नहीं है।
नए थल सेनाध्यक्ष की नियुक्ति से आम धारणा यह बनी है कि इस फैसले में मौजूदा सरकार, उनके संबंधित मंत्रलय और कैबिनेट की नियुक्ति समिति के अपने हित सधते हैं। देखा जाए, तो इस तरह का कोई भी आरोप या कोई भी स्थिति भारतीय सेना की सेहत के लिए सही नहीं है। जिस पैरामीटर पर मनमोहन सरकार ने नए थल सेनाध्यक्ष को चुना, उसी पैरामीटर पर नई सरकार भी यह काम करती। लेकिन आने वाली सरकार से यह मौका छीन लिया गया, जबकि नए थल सेनाध्यक्ष के साथ देश की रक्षा व्यवस्था को लेकर नई सरकार को ही काम करना है। यह कहा जा सकता है कि पुरानी सरकार जिस काम को करने में सक्षम हो, उसे नई सरकार के भरोसे छोड़ना क्या गलत नहीं होगा। लेकिन उस काम का क्या अर्थ निकाला जाए, जिससे सेना और व्यवस्था के बीच खींचतान की आशंका पनपे या दोनों भीतर-भीतर बंट जाए?
नए थल सेनाध्यक्ष की नियुक्ति से जुड़ा दूसरा बड़ा मुद्दा यह है कि समय आ चुका था कि देश वरिष्ठता के आधार पर योग्यता और सामथ्र्य को दरकिनार न करता। किसी भी नियुक्ति प्रक्रिया में वरिष्ठता आधार हो, पर इस शर्त के साथ कि चुना गया व्यक्ति अन्य के मुकाबले न केवल अनुभव, बल्कि योग्यता और क्षमता में भी श्रेष्ठ हो। इस मामले में थल सेनाध्यक्ष की नियुक्ति एक नजीर बन सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मौजूदा पांच आर्मी कमांडर की वरिष्ठता और योग्यता को देखें, तो उन सबके बीच उम्र का फासला करीब पांच-छह महीने के ही हैं, मगर वरिष्ठता को ही तरजीह दी गई, योग्यता को नहीं। इसके बरक्स हाल ही में हमने देखा कि नौसेना की बागडोर अपेक्षाकृत एक योग्य जूनियर को सौंपी गई। जानकार यह सवाल कर सकते हैं कि नौसेना में मेरिट और थल सेना में सीनियरिटी को तवज्जो दी गई, आखिर इस भेदभाव और विरोधाभासी कदम के क्या मतलब निकलते हैं? इसे इस चश्मे से देखा जा सकता है कि संप्रग सरकार पूरी व्यवस्था में एक मानदंड स्थापित नहीं कर पाई। चूंकि नौसेना के वेस्टर्न कमांड में हादसे हुए थे, इसलिए इसे ‘कमांड फेल्योर’ मानते हुए कोई कोताही नहीं बरती गई, दूसरी तरफ थल सेना में इस तरह के प्रयास नहीं हुए।
लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग के साथ एक विवाद यह भी जुड़ा हुआ है कि उनके खिलाफ पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह ने तरक्की पर रोक की कार्रवाई की थी। इस पक्ष से भी दो स्थितियां पैदा होती हैं। पहली, जिसे हम ‘मार्केट परसेप्शन’ कहते हैं और इसके अनुसार, मनमोहन सरकार ने एक ऐसे सैन्य अफसर को आगे बढ़ाने का काम किया, जिसके खिलाफ सेना में कार्रवाई हो चुकी है। यही ‘मार्केट परसेप्शन’ कहता है कि मनमोहन सरकार के करीबी मौजूदा थल सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह हैं और इनके करीबी नए थल सेनाध्यक्ष सुहाग हैं, क्योंकि बिक्रम सिंह के आते ही तरक्की पर रोक हटा ली गई थी। वहीं दूसरी स्थिति एक दुविधा पैदा करती है। दरअसल, जनरल वी के सिंह एक ईमानदार अफसर के रूप में जाने जाते हैं और उन्होंने जाते-जाते यह कार्रवाई सुहाग के खिलाफ की थी और उसी तरह मनमोहन सरकार ने जाते-जाते सुहाग को पदोन्नति दी है, उससे भी सेना पर राजनीतिक रंग चढ़ा है। यह सियासी पार्टियों के कलह का मामला लगता है (जनरल वी के सिंह भारतीय जनता पार्टी में जा चुके हैं, और उसके टिकट पर उन्होंने गाजियाबाद संसदीय क्षेत्र से चुनाव भी लड़ा है), इसलिए अपनी ईमानदार और निष्पक्ष छवि के बावजूद जनरल सिंह को चाहिए कि वह इस पर किसी भी तरह की अनावश्यक टिप्पणी से परहेज करें और सेना की एकता-अखंडता को बनाए रखने में अपना योगदान दें।