IDR Blog

मोदी के रक्षा मंत्री की चुनौतियां
Star Rating Loader Please wait...
Danvir Singh | Date:19 Jun , 2014 0 Comments
Danvir Singh
Associate Editor, Indian Defence Review, former Commanding Officer, 9 Sikh LI and author of  book "Kashmir's Death Trap: Tales of Perfidy and Valour".

भीड़ द्वारा ‘मोदी-मोदी…’ के नारे लगाने का उत्साह ऐसे ही नहीं था। यह पूरे भारत में बड़े पैमाने पर फैली निराशा और हताशा के बीच भारतीयों में आशा की एक नई किरण पर आधारित था। दूसरों के साथ-साथ सशस्त्र बलों के जवानों की उम्मीदें भी इस गर्मी में हुई राजनीतिक बदलाव पर टिकी हुईं हैं।

पिछले कुछ महीनों से हर कोई नरेन्द्र मोदी से सेना की आकांक्षाओं को समझने की उम्मीद कर रहा है। इस दिशा में, लेखक ने बड़े पैमाने पर उन लोगों से मुलाकात की जो सेवा में सक्रिय हैं और जो लंबे समय तक अपनी सेवाएं दे चुके हैं। उम्मीदों की सूची लंबी है और सैनिक से लेकर जनरल तक, हर किसी की अलग-अलग उम्मीदें हैं। सैनिकों और उनके युवा अधिकारियों को बेहतर जीवन, सीमा पर बेहतर आधारभूत संरचना का विकास और बेहतर वेतनमान की उम्मीदें हैं। इन आकांक्षाओं को मध्यम और उच्च स्तर के अधिकारियों का साथ मिल सकता है, लेकिन कुछ अलग तरह से।

नरेन्द्र मोदी से सेना की आकांक्षाओं को समझने की उम्मीद की जा रही है। इस दिशा में, लेखक ने बड़े पैमाने पर उन लोगों से मुलाकात की जो सेवा में सक्रिय हैं और जो लंबे समय तक अपनी सेवाएं दे चुके हैं।

वर्तमान जनरल ‘वन रैंक, वन पेंशन’ योजना को जल्दी से जल्दी लागू करने की आकांक्षा रखेंगे। सेना का सबसे कल्पनाशील और उद्देश्य वाला समूह – कर्नल और ब्रिगेडियर तथा वायुसेना और नौसेना के उनके समकक्ष, 2019 में होने वाले आगामी चुनावों के मोड़ तक किले को नियंत्रित और भारतीय रक्षा की दुश्वारियों को अपने कंधे पर ढोएगा। तब तक वे दो सितारा और तीन सितारा अधिकारी के रूप में होंगे, जो देश की कमान थामने वाले और उसकी सुरक्षा की शपथ लिए हुए व्यक्ति के प्रति जवाबदेह होंगे।

मेरी मुलाकातों की श्रृंखला में पांच बातें प्रमुख रूप से उभर कर आईं, जो सशस्त्र बलों की विश्वसनीयता को चुनौती देते हैं। ये चुनौतियां नेतृत्व, मनोबल, जवाबदेही, एकीकरण और क्षमता से संबंधित हैं। जिस तरह सशस्त्र बलों में नेतृत्व का चुनाव किया गया है, उससे सशस्त्र बलों में नेतृत्व चयन को लेकर एक बड़ा प्रश्रचिह्न खड़ा होता है। वीआईपी हेलीकॉप्टर्स, आदर्श सोसायटी और सुखना से जैसे घोटाले मौजूदा संड़ाध के स्पष्ट उदाहरण हैं। यह उन लोगों की ईमानदारी और विश्वासनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाता है, जो उच्च कार्यालयों में पदस्थापित हैं। इस सब के बीच, जिन बातों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, वह है पिछले कई वर्षों से हमारे शीर्ष सैन्य नेतृत्व की अपनी जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह होने की बढ़ती प्रवृत्ति। क्या यह विडंबना नहीं है कि जब पिछले साल नियंत्रण रेखा पर हमारे जवानों के सिर काटे जाने पर सेना की प्रतिक्रिया के बारे में जब पत्रकारों ने सवाल पूछा, तब जनरल बिक्रम सिंह ने फील्ड कमांडरों पर बकवास बयान दिए।

इस तरह की प्रवृत्ति की शुरूआत पूर्वी कमान के कमांडर के रूप में लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सुहाग, जिन्होंने कोलकाता में आर्मी कमांडर के रूप में प्रतिस्थापित किया था, आगे सेना में चुनाव प्रक्रिया के प्रश्र का जवाब देंगे। सेना के अंदर यह सर्वविदित तथ्य है कि इन दो महानुभावों ने गैर-दोषी साबित होने के लिए निर्णय लेने से परहेज किया, जिसके कारण इस मामले में लिया गया निर्णय गलत हो गया। सैन्य प्रमुख के रूप में बिक्रम सिंह के काम करने के तरीके ने सैन्य कर्मचारियों और कमांडरों पर व्यापक प्रभाव डालते हुए उन्हें हतोत्साहित किया। पूर्वी कमान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह ने अपने पूर्ववर्ती के नक्श-ए-कदम का अनुसरण किया। बढ़ती हुई चिंता यह है कि इस ‘डिसिजन-मेकिंग पैरालाईसिस’ से सेना को और ढ़ाई महीने जुझना है।

मेरी मुलाकातों की श्रृंखला में पांच बातें प्रमुख रूप से उभर कर आईं, जो सशस्त्र बलों की विश्वसनीयता को चुनौती देते हैं। ये चुनौतियां नेतृत्व, मनोबल, जवाबदेही, एकीकरण और क्षमता से संबंधित हैं।

शंका से परे, निष्क्रियता के इस मॉडल ने सेना के परिचालन और प्रशासनिक कार्य-प्रणाली को नुकसान पहुंचाया है। कुछ गलत होने के डर से उठने वाली दुविधा की स्थिति खतरनाक है। समान्य हताशा को खत्म करने के लिए सैन्य कमांडरों को अत्यधिक सर्तक होकर जोखिम उठाना है, जो स्पष्ट तौर पर सीमा पर दिखे। इन दिनों कमांडर विभिन्न स्तरों पर जिम्मेवारी निभाने से डर रहे हैं। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। दुर्भाग्य से यह मॉडल बिना किसी त्रुटि के अपने करियर में आगे बढऩे का तरीका बन गया है। अब समय आ गया है कि उत्तराधिकार के रास्ते पर चलते हुए वरिष्ठता क्रम के अनुसार सैन्य प्रमुखों के चयन की प्रक्रिया को दूर करते हुए गहरी चयन प्रक्रिया को अपनाया जाय। यह चरम है कि चरित्र को योग्यता से ऊंचा रखा गया। गहराई तक जड़ जमाए इस तंत्र को हिलाना मोदी के लिए आसान नहीं है। सैन्य प्रमुख पद के लिए निर्णय-क्षमता, नैतिक साहस और सत्यनिष्ठा आदि कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जिनकी सख्त आवश्यकता है।

यह भी सत्य है कि सेना की सभी बुराईयों के लिए अकेले सेना प्रमुख को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन मई 2012 में लेह के 226 फील्ड आर्टिलरी रेजिमेंट और अक्टूबर 2013 में मेरठ के 10 सिख लाईट इंफैंट्री जैसी घटनाएं गंभीर चिंता के विषय हैं और इससे नेतृत्व को बरी नहीं किया जा सकता। इन दोनों ही मामलों में परिस्थितियां पूरी तरह से हाथ से निकल चुकी थीं, जिसमें जवानों ने अपने ही अधिकारियों की पिटाई कर दी। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। इस तरह की घटनाओं ने निश्चित तौर पर सेना के मनोबल को कम किया है। आत्महत्या और साथियों की हत्या करने जैसी घटनाएं कतई असमान्य नहीं हैं। यह गिरते मनोबल का सूचकांक है।

2012 में उत्तर-पूर्व में एक ब्रिगेड कमांडर को अनुकूल वार्षिक रिपोर्ट लिखने के लिए अपने कमांडिंग अधिकारियों से रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया था। इस घटना को टीवी चैनलों ने बड़े पैमाने पर प्रसारित किया था, जिसने इस तंत्र के अधिकारियों और कर्मचारियों के विश्वास को पूरी तरह हिला कर रख दिया। नियंत्रण रेखा पर हमारे सैनिकों की हत्या कर उनके सिर काटने और उस जैसी अनेक घटनाओं ने हमारे सैनिकों के आत्मविश्वास को बुरी तरह प्रभावित किया है। एक बड़ी सेना में इन घटनाओं को छोटा कहकर भले ही दरकिनार कर दिया गया हो, लेकिन ये घटनाएं सेना के गिरते स्तर को दर्शाती हैं। विश्व की तीसरी सबसे बड़ी सेना के मनोबल को बढ़ाना हमारे जनरल और राजनेताओं की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। नौसेना में लगातार हो रही दुर्घटनाओं की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए हाल ही में एडमिरल डी.के. जोशी द्वारा नौसेना प्रमुख पद से त्याग-पत्र देना भले ही दुर्लभ घटना हो, लेकिन सशस्त्र बलों में नैतिक जिम्मेदारी लेने की उच्चतम परंपरा का यह नायाब उदाहरण है। बाद में सरकार ने वाईस एडमिरल सिन्हा के स्थान पर रॉबिन के. धोवां को नौसेना प्रमुख बनाकर दुर्घटना की जिम्मेदारी सही कंधे पर तय करने की कोशिश की। एडमिरल सिन्हा, जो दुर्घटना के वक्त पश्चिमी बेड़े के कमांडर थे, को नौसेना के सर्वोच्च पद के लिए अनदेखी की गई, जो उच्चतम स्तर पर जवाबदेही तय करने के दुर्लभ मामलों में से एक है।

…एडमिरल सिन्हा, जो दुर्घटना के वक्त पश्चिमी बेड़े के कमांडर थे, को नौसेना के सर्वोच्च पद के लिए अनदेखी की गई, जो उच्चतम स्तर पर जवाबदेही तय करने के दुर्लभ मामलों में से एक है।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। रक्षा मंत्रालय में बैठे उन अधिकारियों का क्या, जो विभिन्न सेवा प्रमुखों के लगातार अनुरोधों के बावजूद उपकरणों की खरीद, समय पर अपग्रेडेशन और आधुनिकीकरण में देरी के लिए उत्तरदायी हैं? इस देरी की वजह से उपकरणों में खराबी और विफलता के कारण अनेक दुर्घटनाएं हुईं। इस बिंदू पर प्रमुख मामला है – दुर्घटनाग्रस्त मिग-21 में बचे संजीत कालिया का, जिन्होंने न्याय के लिए कानून का सहारा लिया था। माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस दुर्घटना, जिसमें पायलट गंभीर रूप से घायल हो गया था, की जिम्मेदारी को इंडियन एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के विनिर्माण दोष और खराब कारीगरी में विभाजित किया था। लेकिन, रक्षा सचिव, रक्षा उत्पादन और एचएएल के प्रमुख की जिम्मेदारी क्या है? सरकारी खजाने के नुकसान के लिए किसी न किसी से तो पूछ-ताछ की ही जानी चाहिए। जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता और उपेक्षा के कारण हमारे देश के महान योद्धाओं के जीवन की हानि या अंग-भंग का जवाब तो किसी को देना ही है। सशस्त्र बलों में बैठे ऐसे अनुपयोगी लोगों को पहचानने का कठिन कार्य नरेन्द्र मोदी के सामने है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि समान्य और प्रभावी प्रक्रिया को अपनाया जाय, ताकि पूरा तंत्र तेल से सने मशीन की तरह बिना किसी रूकावट के काम कर सके। एक ऐसी प्रणाली वांछनीय है, जहां जिम्मेवार लोग समान रूप से जवाबदेह हों।

इसमें कोई शंका नहीं है कि आज सेना मुख्यालय, रक्षा मंत्रालय (सेना) के एकीकृत मुख्यालय के रूप में जाना जाता है। उसी प्रकार, नौसेना और वायुसेना के लिए भी है। दुर्भाग्य से, बिना किसी सार्थक एकीकरण के यह सिर्फ मृग-मरीचिका के सिवाय और कुछ नहीं है। कारगिल समीक्षा समिति की रिपोर्ट का पूरी गंभीरता से क्रियान्वयन और आवश्यक संसदीय मंजूरी के द्वारा डिफेंस स्टाफ के प्रमुख की नियुक्ति वास्तविक एकीकरण होगी। ऐसा करने में जवाबदेही और आधुनिकीकरण से संबंधित पहलू स्वत: सुव्यवस्थित हो जाएंगे। हालांकि इस बदलाव से रक्षा और अन्य मंत्रालयों के बीच तालमेल से जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू सामने आएगा वह है – एक रणनीतिक प्रक्रिया का निर्धारण। एक देश द्वारा गंभीर उपाय की आवश्यकता है, जो एशिया की इक्कीसवीं सदी की भविष्यवाणी की दहलीज पर खड़ा है। इस एकीकरण द्वारा देश की बहुत मदद की जा सकती है।

जवाहरलाल नेहरू की सैन्य तख्तापलट की आशंका के कारण स्वतंत्रता के बाद से ही सेवा मुख्यालय रक्षा मंत्रालय का सहायक रहा है। हालांकि सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह के कार्यकाल में तत्कालीन रक्षा सचिव शशांक शर्मा ने एक राष्ट्रीय दैनिक की मदद से सेना द्वारा तख्तापलट की मनगढंत कहानी को पुनजीर्वित कर, सेना प्रमुख और सेना को बदनाम करने का हर संभव प्रयास किया।

रक्षा मंत्रालय के साथ सेवा मुख्यालय का एकीकरण, मोदी सरकार की उच्च प्राथमिकता वाला एजेंडा होना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू की सैन्य तख्तापलट की आशंका के कारण स्वतंत्रता के बाद से ही सेवा मुख्यालय रक्षा मंत्रालय का सहायक रहा है। हालांकि सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह के कार्यकाल में तत्कालीन रक्षा सचिव शशांक शर्मा ने एक राष्ट्रीय दैनिक की मदद से सेना द्वारा तख्तापलट की मनगढंत कहानी को पुनजीर्वित कर, सेना प्रमुख और सेना को बदनाम करने का हर संभव प्रयास किया। इसका तत्काल असर सशस्त्र बलों में अविश्वास और अलगाव के रूप में दिखा। इसने सशस्त्र बलों की रक्षा मंत्रालय के साथ उचित एकीकरण की वैध इच्छा को दबाने का पर्याप्त कारण प्रदान किया। क्या नौकरशाहों द्वारा इस तरह के प्रयास दोहराने से रोकने के लिए सुरक्षा उपाय किए जाएंगे? आने वाले समय में विश्वास और आस्था पर आधारित नागरिक और सैन्य संबंध किस तरह देखने को मिलेगा?

अंतत:, सबसे बड़ी चुनौती एक मजबूत और सक्षम सशस्त्र बल सुनिश्चित करना है। यह सिर्फ तेज आधुनिकीकरण से ही संभव है। अब समय आ गया है कि सीमा पर रक्षा का प्रबंधन परंपरागत सेना की गहन तैनाती के बजाय तकनीक आधारित हो। आज वायु सेना की लड़ाकू ताकत चिंताजनक रूप से समाप्त हो रही है। नौसेना का पनडुब्बी विभाग उतना असरदार नहीं है। सेना के पास भी सीमित गोला-बारूद है, जिससे गहन लड़ाई के दौरान वह सिर्फ डेढ़ दिनों तक लड़ सकती है। वायु रक्षा लगभग मृतप्राय है और आर्टिलरी में सिर्फ अप्रचलित बंदुकें और प्रणालियां बची हैं। इंफैंटरी के जवान बुनियादी उपकरणों की कमी से जूझ रहे हैं और गंभीरता से उन राईफलों के बराबर उम्मीद कर रहे हैं, जो सीमा पर दुश्मनों के हाथों में मौजूद हैं। यह सूची काफी लंबी है।

हमारे नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उन्हीं के संबंधों में ‘सीधे उनकी आंखों में देखते हुए’ अपने उग्र पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंधों का इरादा रखते हैं। यह तभी हो सकता है, जब देश मजबूत हो। सेना उस मजबूती की मिसाल है, जो मजबूत अर्थव्यवस्था और सक्षम नेतृत्व से उभरता है। अब समय आ गया है कि उपकरणों से जुझते सेना के जवानों को नौकरशाहों की उपेक्षा तथा डीआरडीओ और सार्वजनिक क्षेत्र की रक्षा कंपनियों की प्रतिबद्धता और जवाबदेही की कमी से नहीं जुझना पड़े। हर देशभक्त भारतीयों की उम्मीदों के अनुसार भारत सशक्त सशस्त्र बलों का हकदार है।

Courtesy, Uday India: http://www.udayindia.in/hindi/content_14june2014/cover-story5.html

Rate this Article
Star Rating Loader Please wait...
The views expressed are of the author and do not necessarily represent the opinions or policies of the Indian Defence Review.

Post your Comment

2000characters left